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साथ थे हमारे अपने, और बहुत दूर थी मंजिल
कयास नहीं था कोई थाम लेंगा गिरने पे हमे,
क्यूंकि चलना ही सिखा था हमने लड़खड़ा कर,
मेरे अपनों ने भी साथ छोड़ दिया,
बस ये समझ कर कहीं हम सहारा न मांग ले,
फिर वक़्त ने ली एक हसीं अंगडाई,
हम फिर उन्ही राहों में दौड़ने लगे,
अब न कोई अपना है न पराया,
कोई साथ हैं तो बस राहगीर
Author: Ashish Saket
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